उषा सुंदरी
घूँघट से देखती
शर्माते गिरि
कुहासे की रजाई
ठण्ड है भाई
बुड्ढी हड्डीयां
आ गयी सहलाने
जाड़े की धुप
मंजिले वही
कुहासों ने निगले
डगर सभी
बर्फ ही बर्फ
भीतर या बाहर
है हिमयुग
हो रही सांझ
ठिठुर रहे रिश्ते
खोजते ताप
धुप की ताप
पिघला नही पाई
रिश्तो की हिम
सर्द है रात
तेरी यादो ने छुआ
जलेअलाव
क्रांति मशाल
हिममानव ढोते
अच्छा मजाक
पर्वत चोटी
हिम चादर ओढ़े
रण में डटी
पर्वत माला
साल भर ओढती
हिम दुशाला
श्वेत चुनड़ी
पहने हरी साड़ी
हिंद सुन्दरी
बरसो बाद
पिघला ग्लेशियर
मिला जो खत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें