BLOG DESIGNED BYअरुन शर्मा 'अनन्त'

रविवार, 8 मई 2016

मैया दुलारे


माँ जल जैसी
मिले जाये जो पात्र
ढलती वैसी ।

पंख ही नहीं
दिशा व हिम्मत भी
माँ ने ही दिया ।

पूत ,कपूत
दोनों नयनतारे
मैया दुलारे ।

साथी से दुरी
गुलाब थी माँ ,हुयी
बाड़ कँटीली  ।

भव्य बँगला
खोजती  विधवा माँ
कक्ष अपना  ।

भीष्ण सुखाड़
सूखा  ना पाई धूप
ममत्व धार।

जब से सृष्टि
प्रभु ने ही सम्हाला
माँ की पदवी   । 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें