माँ जल जैसी
मिले जाये जो पात्र
ढलती वैसी ।
पंख ही नहीं
दिशा व हिम्मत भी
माँ ने ही दिया ।
पूत ,कपूत
दोनों नयनतारे
मैया दुलारे ।
साथी से दुरी
गुलाब थी माँ ,हुयी
बाड़ कँटीली ।
भव्य बँगला
खोजती विधवा माँ
कक्ष अपना ।
भीष्ण सुखाड़
सूखा ना पाई धूप
ममत्व धार।
जब से सृष्टि
प्रभु ने ही सम्हाला
माँ की पदवी ।